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Oct 4, 2010

Another New Poem by Dr. Kumar Vishwas

Update:
Another Latest Poem by Kumar Vishwas
Selected Stanzas from Kumar Vishwas Poems

मेरा अपना तजुर्बा है वही बतला रहा हूँ मैं
कोई लभ छू गया था तब कि अब तक गा रहा हूँ मैं
फिर आके प्यार मैं कैसे जिया जाये बिना तडपे
जो मैं खुद ही नहीं समझा वही समझा रहा हूँ मैं

कसी पत्थर मैं मूरत है कोई पत्थर कि मूरत है
लो हमने देख ली दुनिया जो इतनी खूबसूरत है
जमाना अपनी समझे पर मुझे अपनी खबर यह है
तुझे मेरी ज़जूरत है मुझे तेरी ज़रुरत है

कोई कब तक मेहेज सोचे कोई कब तक मेहेज गाये
इलाही क्या यह मुमकिन है कि कुछ ऐसा भी हो जाए
मेरा महताब उसकी रात के आहोश मैं पिघले
मैं उसकी नींद मैं जागु वोह मुझे मैं घुल के सो जाये

कोई मनजिल नहीं जचती सफ़र अच्छा नहीं लगता
अगर घर लौट भी आऊं तोह घर अच्छा नहीं लगता
कहूँ कुछ भी मैं अब दुनिया को सब अच्छा ही लगता है
मुझे कुछ भी तुम्हारे बिन मगर अच्छा नहीं लगता

6 comments:

  1. Anonymous4:37 PM

    mast............

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  2. Anonymous6:22 PM

    haiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii

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  3. Anonymous1:03 AM

    i like it but i want to give some suggestion if you dont mind .actually your written poetry in hindi are not in correct way . meannings are reverse as- fir-aake means khoj and you written that fir . aake,,that means again come

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    1. Thanks for your feedback. I understand the difference between the two, but I am not sure if the poem uses the latter and not the former. I tried to search for a written version of this poem online and they seem to use the same word (http://khushhumain.blogspot.sg/2011/11/blog-post.html).
      I had written it while listening to a video of Dr. Kumar Vishwas so it is possible I did not hear properly. I would be happy if can point to a authoritative version so that I can correct it.

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